Physics in Ancient India
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 'शब्द' : तरंग वृत्ति
 लेखक परिचय
'शब्द' : तरंग वृत्ति


शब्द ( Sabda )
जैसा कि हम परिच्छेद चतुर्थ और पंचम में ही देख चुके हैं कि 'प्लाज्मा' (आकाश) पदार्थ की चतुर्थ अवस्था है। वैशेषिक सिद्धान्त के अनुसार तरंग वृत्ति ( wave aspect ) प्लाज्मा का विशेष गुण है। इस अवस्था का यह स्थायी गुण है। प्रकृत प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि भौतिक विज्ञान में सूक्ष्म-दर्शीय कणों ( microscopic particles ) पर विचार क्रम में हमें इन कणों की तरंग वृत्ति को समझना नितान्त आवश्यक होता है। वैशेषिक जो इसका अन्तिम लक्ष्य 'आत्मा और मन' के अध्ययन के रूप में निर्धारित करता है, नई दिशा अपनाकर 'क्षणिक शब्द' की व्याख्या ध्वनि (sound :acoustical wave ) के रूप में करता हे जो कान द्वारा ग्रहण की जाती है।
वैशेषिक दर्शन 1 वायु (air) को ध्वनि (sound) का माध्यम (वाहक) कहता है। वायु में ध्वनि विस्तार प्रक्रिया हेतु यह स्पष्ट है कि वायवीय कणों को 'स्पन्दन' (oscillation : माध्य स्थिति पर दोलन) करना चाहिए, जो कि उनका माध्य स्थिति से सामयिक संयोग और विभाग है। यह कल्पना करना स्वाभाविक है कि अन्तराणविक अन्तराल (inter molecular space) में कम्पनों (vibrations) के उदय का कारक, अणुओं के मध्य 'आकाशीय अवस्था (plasmatic state) की विद्यमानता है।
वैशेषिक दर्शन में ध्वनि के दो रूपों का वर्णन है-
(i) ध्वनि (musical sound)
(ii) वर्ण (speech sound)
इनकी परिभाषा भौतिक विज्ञान के अनुरूप ही है। दिक् में ध्वनि के विस्तार की व्याख्या जल की मुक्त सतह पर सतह - तरंगो (surface waves) की तुल्यता के साथ की गई है। 2 जिसके अनुसार एक तरंग दूसरी तरंग (संतति) को अत्पन्न करती है और इस क्रम में एक स्थान से दूसरे स्थान पर बढ़ती जाती है।
इसकी तुलना हाइगेन सिद्धान्त (Huyghen's Principle) से की जा सकती है। 3
वैशेषिकज्ञों ने तरंगों की क्रमण को दो पद्धतियों अर्थात् एक कदम्बगोल न्याय (longitudinal mode) एवं दूसरा विचितरंग न्याय (transverse mode) को स्वीकारा है। 4
विशेष अध्ययन के लिए 'साम' एवं 'संगीत' पर इनके प्राचीन ग्रन्थ अवलोकनीय है।
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References
1
प्रशस्तपाद, -भाष्य, शब्दगुण विमर्श:, (६०० ई. पू.),
"शब्दोऽम्बर गुण: श्रोतग्राह्य: क्षणिक: कार्यकारणोभय विरोधि संयोग विभाग शब्दज: प्रदेशवृत्ति: समानासमान जातीय कारण:। सद्विविधोवर्ण लक्षणो ध्वनिलक्षणश्च। तत्र आकारादिर्वर्णलक्षण: शंखादि निमित्तध्वनि लक्षणश्च। तत्र वर्णलक्षणस्योत्पत्तिरात्ममनसो: संयोगात् स्मृत्यापेक्षात्वर्णोच्चारणेच्छा तदनंतरं प्रयत्न: तमपेक्षमानाद्वायु संयोगाद्वायुकर्म जायते स च्वोर्ध्वं गच्छन् कंठादि अभिहन्ति तत: स्थानवायु संयोगापेक्षमाणात् स्थानाकाश संयोगात् वर्णोत्पत्ति:। अवर्णलक्षणोऽपि भेरिदण्ड संयोगापेक्षाद् भेर्याकाशंयोगादुत्पद्यते। वेणु पर्व विभागद्वेन्वाकाश विभागाच्च संयोग विभाग निष्पन्नाद्विचि संतानवच्छब्द संतान इत्येवं संतानेन श्रोत्र प्रदेशमागत्य ग्रहणं श्रोतशब्दयोर्गमनागमन भावाद्प्राप्तस्यग्रहणंनास्ति परिशेष्यात् संतान सिद्धि इति"
2
प्रशस्तपाद, -भाष्य, शब्दगुण विमर्श:,न्यायकन्दली (६०० ई. पू.),
"शब्दात् संयोग विभागनिष्पन्ना विचिसन्तानवच्छब्द संतानो यथा जलवीच्याद व्यवहितेदेशे विच्यान्तरमुपजायते ततोप्यन्यत्ततोप्यन्यक्रमेण वीचीसंतानो भवति तथा शब्दादुत्पन्नात् दते व्यवहिते देशे शब्दान्तरं ततोऽप्यनयोर्गमनागमन भावात् प्राप्तस्यरिवोपलब्धिरिति। ततोप्यन्यत् ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण शब्द संतानोभवति।"
3
Dr. N.G. Dongre, Waves and Oscillation, (२०००),
Huyghen's Principle : All the points on a wave-front are supposed to be independent sources, known as secondary sources which in turn produces wave fronts which are known as wavelets which speed out in all directions with a velocity equal to that of the propagation of wave in question. After an interval, the new wave-front moving in forward direction is given by the enveloping surface to all wavelets.
4
N.G. Dongre, Waves and Oscillation,Page ११७-१७१ (२०००)
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार